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मंगलवार, 2 जनवरी 2024

जंगल में रात का सफर- बरसूडी गांव


यह यात्रा मैंने 31oct 2018 को अपने एक दोस्त के संग की थी। हम दोनों को पौड़ी गढ़वाल के एक गांव बरसूडी में जाना था। यह गांव हमारे परम मित्र बीनू कुकरेती जी का है और हम कुछ दोस्त इस गांव में 2017 से एक एजुकेशन व स्वास्थ्य कैम्प का आयोजन करते आ रहे थे। इसलिए हमें वहाँ एक दिन पहले पहुँचना था। उस समय गांव तक सड़क नही थी (वर्तमान में सड़क बन चुकी है ) सड़क केवल द्वारीखाल तक ही थी। और बरसूडी गांव तक जाने के लिए करीब 8 km पैदल चलना होता था। 
हम दोनों दोस्त अपनी कार से जा रहे थे। इसलिए कुछ काम निपटाने के बाद लगभग 11 बजे दिल्ली से बरसूडी के लिए निकल पड़े। दिल्ली से द्वारीखाल तक कि दूरी 240 किलोमीटर थी और हमें लगभग शाम के 5 बजे तक पहुँच जाना था। हम मेरठ रोड से होते हुए मीरापुर पहुँचे। अब हमें कोटद्वार वाले रास्ते पर चलना था। फिर हम आगे नजीबाबाद पहुँच कर एक ढ़ाबे पर रुकें। हमे रास्ते मे बारिश भी मिली लेकिन बारिश थोड़ी ही देर में रुक गयी। हमने ढ़ाबे पर खाना खाया और कोटद्वार के लिए निकल पड़े।

sidhbali mandir kotdwar
सिध्बली टेम्पल, कोटद्वार

ट्रैफिक जाम

लैंड स्लाइड



कोटद्वार में हनुमानजी का एक प्रसिद्ध मंदिर है। जो सिद्धबली नाम से प्रसिद्ध है। सिद्धबली मंदिर खोह नदी के किनारे एक पहाड़ी पर बना है। मंदिर को दूर से ही प्रणाम किया और आगे निकल गए। आगे रास्ता टूटा मिला क्योंकि दो चार दिन पहले एक पहाड़ी खिसक थी और कोटद्वार में भी काफी बारिश हुई थी। हमको भी एक दो जगह जाम जैसी स्तिथि का सामना करना पड़ा। हम लगभग शाम के 6 बजे दुगड्डा से थोड़ा आगे गुमखाल पहुँच गए। गुमखाल एक सुंदर जगह है।



गुमखाल
मैं सचिन त्यागी (लेखक)

गुमखाल से एक रास्ता सीधा पौड़ी को चला जाता है और एक रास्ता बांए तरफ ऋषिकेश चला जाता है। ऋषिकेश वाले रास्ते पर ही हम चल पड़े। थोड़ा चलते ही कीर्तिखाल आ गया यहाँ से भैरोगढ़ी मंदिर के लिए पैदल रास्ता बना है। हम कीर्तिखाल से थोड़ा आगे द्वारीखाल के लिए चल दिये अब शाम ढल चुकी थी पर अभी उजाला था। सड़क किनारे एक जगह देखकर अपनी कार साइड में लगा दी। और अपना सामान उठा कर बरसूडी गांव के लिए चल दिये। एक चाय की दुकान पर रुके और एक गर्म चाय के लिए बोल दिया । चाय पीते-पीते हुए बरसूडी गांव का रास्ता भी पूछ लिया । वैसे रास्ता तो हम जानते थे क्योंकि पिछले साल भी गाँव आए थे। रास्ता पूछने का एक यह भी कारण था की एक तो पूरा रास्ता जंगल का था और दूसरा अब शाम ढल चुकी थी और शायद कुछ ही पलों में अंधेरा भी होने वाला था। हमे उम्मीद थी की शायद कोई ना कोई गांव का व्यक्ति पिछले साल की तरह आज भी हमारे साथ चल पड़े। लेकिन अबकी बार हम थोड़े लेट थे गांव के लोग वापिस जा चुके थे। 
शाम के लगभग 7 बजे हम चाय की दुकान से चल पड़े। अभी थोड़ा उजाला था लेकिन जल्द ही अंधेरा चारो तरफ फैल जाएगा यह हमें पता था। पहाड़ो पर ऐसा ही होता है अंधकार जल्दी ही फैल जाता है। कुछ घरों से धुआं उड़ रहा था यह रात के खाने बनने का संकेत होता है। दुकान से करीब 200 मीटर दूर एक आखिरी घर था। उससे आगे कोई घर नही था। फिर आगे जंगल का ही रास्ता था। पहाड़ो पर चीड़, बांज बुराँस आदि के पेड़ होते है यहां भी चीड़ के गगनचुंबी पेड़ बहुयात थे। वैसे पहाड़ी लोग चीड़ के पेड़ को अच्छा नही मानते है एक तो इसका पिरूल बहुत जल्दी जल जाता है और कभी कभी तो सूर्य की तेज किरणों से भी सुलग जाता है जिससे जंगलो में आग लग जाती है। दूसरा इस पेड़ के नीचे अन्य वनस्पति नही उपज पाती है।

बर्सुड़ी के लिए चल पड़े 

तो हम दोनों चीड़ व अन्य पेड़ के जंगलों में चल रहे थे। पिछले साल के मुकाबले रास्ता बदल गया था जो छोटा सा रास्ता था वो अब नही था। अब रास्ता एक कच्ची सड़क जैसा हो गया था जिसपर बहुत छोटे छोटे पत्थर फैले हुए थे। इस सड़क निर्माण की वजह से पहाड़ काटे गए होंगे तो वह रास्ता भी तोड़ दिया गया होगा। अब यह रास्ता हमारे लिए नया ही था। हम आगे चलने के साथ रुक रुक कर बार बार पीछे भी देख रहे थे की शायद कोई मुसाफिर दिख जाए, पर कोई आता नही दिख रहा था। पहाड़ के उस पार दूर दूसरी तरफ सड़क पर लाइट दिख रही थी। वो ऋषिकेश रोड था। 
अब अँधेरा होने लगा था 



कुछ दूर चलने के बाद पेड़ घने हो गए थे और अब अंधकार भी चारो तरफ पूरी तरह फैल चुका था। मेरा दोस्त मुस्तफा एक कमजोर दिल का प्राणी है। इसका उदाहरण वह पहले भी कई बार दे चुका है। आज भी अंधेरा होते ही उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। उसे तो यह भय था की तेंदुआ, भालू अभी कुछ दूर रास्ते मे ही मिल जाएंगे और अपने बचाव कैसे होगा सभी की कहानी भी सुनाने लगा। मैंने अपने बैग से एक छोटी टार्च निकाल ली। हम थोड़ा चलते फिर रुक जाते क्योंकि हमे पहाड़ी रास्तो पर चलने की आदत भी नही थी इसलिए थोड़ा सांसो को आराम देते हुए चल रहे थे और ऊपर से अंधेरे व जंगल का भय अलग से था। हवा से पेड़ो व झाड़ियों की पत्तियां भी हिलती तो जान सी निकल जाती। बल्कि मुस्तफा ने तो यहा तक भी कह दिया था कि यदि तेंदुआ आ गया तो वो खाई की तरफ नीचे भागेगा। थोड़ा आगे चलने पर रास्ता दो जगह फट गया। जबकि पहले गांव तक रास्ता सीधा ही था। इसलिए मैंने इस रास्ते पर भी सीधा ही चलना तय किया, जो सही भी था। बाद में पता चला की दूसरा रास्ता भाल गांव के लिए था। हमे चलते हुए लगभग 1 घण्टा हो चुका था। एक मोड़ पर पर मुड़ते ही मुझे आगे लगभग 300 मीटर दूर कोई जानवर सड़क के किनारे बैठा प्रतित हुआ। जो मुझे टॉर्च की रोशनी में दिखाई पड़ा। मैं तुरंत एक जगह रुक गया मैंने मुस्तफा को शांत रहने की सलाह दी। मुस्तफा का हाल बेहाल हो गया था। हमने तय किया कि हम यहीं कुछ देर खड़े रहेंगे जब तक वो जानवर चला नही जाता। लगभग 10 से 15 मिनेट बाद मैंने टॉर्च की रोशनी फिर आगे मोड़ की तरफ की तो देखा की वह जानवर तो उसी मुद्रा में बैठा हुआ था जैसे मैंने उसे पहले देखा था। मुझे कुछ संदेह हुआ फिर मैंने फैसला किया कि हमे कुछ आगे बढ़ना चाहिए। थोड़ा आगे बढ़े तो पता चला कि वो एक टूटा हुआ पेड़ का हिस्सा था और उसके आगे एक पत्थर पड़ा था जो दूर से एक जानवर का मुँह जैसे दिख रहा था। मैंने मुस्तफा को बोल दिया कि यह तेरी वजह से हुआ है जब से चले है तब से कभी भूत तो कभी तेंदुआ यही बोलता आ रहा है इसलिए मुझे भी लकड़ी और पत्थर में जानवर दिखने लगे है।

मुस्तफा को मैंने बताया कि यदि तेज़ आवाज में बोलते चले या गाना गाते चले तो जानवर निकट नही आते तब मैंने तो मेरे दोस्त ने तेज़ आवाज में बोलना शुरू कर दिया। जब तक पेड़ो पर बैठे एक पक्षी ने बोलना शुरू ना किया। मैंने मुस्तफा को फिर डरा दिया कि यह पक्षी बता रहा है की तेंदुआ आसपास ही है। 

दूर बर्सुड़ी गाँव दिख रहा है

करीब आधा घंटे बाद आगे चलने पर मुझे बांये तरफ खाई के उस पार कुछ लाइट चमकती हुई दिखाई दी। ध्यान से देखा तो मैं बरसूडी गांव को तुरंत पहचान गया। मैंने टॉर्च की लाइट गांव की तरफ की और टोर्च से डीपर भी दिया तो गांव की तरफ से भी कई टॉर्च की लाइट जलाई गई। अब मंज़िल पास थी तो थोड़ा चैन आ गया और डर भी कम हुआ। अब हम आगे की और चल पड़े। आगे रास्ता अत्यधिक टूटा हुआ था केवल मात्र एक या दो फ़ीट की रास्ता ही बना था उसको पार कर हम लगभग रात के 9:30 पर बरसूडी गांव पहुँच गए। फिर सभी दोस्तों के मिलकर और रात का खाना खाकर सोने के लिए एक कमरे में चले गए। अगले दिन सुबह हमने कैम्प के आयोजन में भाग लिया और दोस्तो के साथ गांव का भ्रमण भी किया। 

वैसे गांव वालों ने बताया कि एक तेंदुआ चार पांच दिन पहले एक कुत्ते को उठा कर ले गया था। मेरे दोस्त का मुँह देखने लायक था उसने तो बोल भी दिया की यदि यह खबर उसे पहले पता होती तो वह रात में कभी नही आता। यह रात मुझे आज भी पूरी तरफ याद है और शायद ही इस रात को भूल पाऊंगा।  

गाँव के एक बुजर्ग


बच्चो के साथ 


खेल कूद प्रतियोगिता

हमारे मित्र प्रकाश जी बच्चो के साथ

मुस्तफा

बोरा रेस





मित्र मंडली


मित्र मंडली 

मास्टर जी


मेरा पोज कैसा है 

मेडिकल केम्प में सहयोग

एक गाँव का घर जिसमे अब कोई नहीं रहता

मित्र मंडली गाँव भ्रमण पर



दूर से बरसूदीगाँव 









शनिवार, 2 मई 2020

काशी विश्वनाथ मंदिर-उत्तरकाशी

अब तक आपने पढ़ा कि हम गंगोत्री धाम के दर्शन करने के पश्चात गंगनानी के आसपास रुक गए थे अब आगे पढ़ें...

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31 मई 2019
kashi viswanath temple, uttarkashi

सुबह जल्दी ही उठ गए हैं और फ्रेश होने के पश्चात लगभग 6 बजे हम यहां से उत्तरकाशी की तरफ निकल चलें। कुछ किलोमीटर चलने पर भटवारी आया अभी दुकाने बंद थी इसलिए हम लगभग 30 km आगे चलकर उत्तरकाशी के बस स्टैंड पहुँचे। बस स्टैंड से काशी विश्वनाथ मंदिर मात्र 300 मीटर की दूरी पर ही। हम जल्द ही मंदिर के सामने थे। मंदिर के बाहर बैठे एक प्रसाद बेचने वाले से गंगा घाट के लिए रास्ता पूछा तो उसने रास्ता समझाते हुए बताया कि केदार घाट पर चले जाना, वह बहुत बढ़िया बना है। हमने पहले ही तय कर लिया था कि पहले गंगा घाट पर स्नान करेंगे फिर बाबा विश्वनाथ जी के दर्शन। मंदिर से लगभग 500 मीटर चलने पर ही केदार घाट पहुँच गए। यह घाट काफी साफ सुथरा दिख रहा था। सुबह-सुबह अभी कुछ औरतें व एक दो आदमी ही स्नान कर रहे थे। महिलाओं के लिए कपड़े बदलने की के लिए एक दो चेंजिंग रूम भी बने हैं। यह घाट कुछ कुछ हरिद्वार की हर की पौड़ी की याद दिलाता है लेकिन यह उससे काफी छोटा है। हरिद्वार में गंगा स्नान करना भी मुझे बड़ा ही आनंद प्रदान करता है।
खैर जब मैंने जल में पहला कदम रखा तो यह काफी ठंडा महसूस हुआ लेकिन यहां के जल की तुलना गंगोत्री के जल से करें तो उसके सामने यह कुछ भी ठंडा नही था इसलिए पहली डुबकी लगाकर फिर आराम से दस पंद्रह मिनट तक नहाया और खूब डुबकी भी लगाई। नहाने के पश्चात घाट के नजदीक ही मेरी कार भी खड़ी थी उसको भी गंगा जल से स्नान करा ही दिया। वापिस घाट पर आकर कपड़े बदल कर एक मंदिर जो केदारनाथ मंदिर से जाना जाता है और घाट के बेहद नजदीक भी है उसमें दर्शन के लिए गए। यह मंदिर छोटा है लेकिन अंदर भगवान केदारनाथ के भव्य दर्शन होते है। एक बार तो मुझे लगा कि जैसे हम वाकई केदारनाथ आ गए है। वैसी ही चट्टानी शिवलिंग बनाई हुई है जैसे केदारनाथ धाम में स्तिथ है।
उत्तरकाशी शहर व केदार घाट 

काशी विश्वनाथ मंदिर
घाट से चलकर हम थोड़ी ही देर में काशी विश्वनाथ मंदिर पहुंच गए। मंदिर के बाहर दीवारों पर स्थानीय लोगों ने या फिर प्रशासन की तरफ से पेंटिंग की हुई है जो बहुत अच्छी दिख रही थी। मंदिर में प्रवेश करने से पहले हमने प्रसाद भी लिया और बाबा विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए मंदिर परिसर में प्रवेश किया। मंदिर परिसर में कई मंदिर बने है। सबसे पहले हम विश्वनाथ मंदिर में गए। सबसे पहले नंदी जी के दर्शन होते है फिर हम मुख्य कक्ष में प्रवेश करते है यहाँ भगवान शिव शिवलिंग के रूप में विराजमान है, यह शिवलिंग दक्षिण दिशा की तरफ झुका है जिसे साफ देखा जा सकता है। मंदिर के पुजारी जी ने बताया कि यह मंदिर भगवान परशुराम जी ने बनाया था लेकिन यह शिवलिंग स्वयंभू है अर्थात किसी ने इसे यहां पर स्थापित नही किया है यह स्वयं प्रकट हुआ है और इसका दक्षिण की तरफ झुका होना ही इसका सबूत है क्योंकि यदि कोई व्यक्ति इस शिवलिंग को स्थापित करता तो सीधा ही करता। उन्होंने बताया कि बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर और उत्तरकाशी के विश्वनाथ मंदिर की एक ही मान्यता है। उन्होंने यह भी बताया कि पुराणों में भी उत्तरकाशी का वर्णन है और पहले इस नगरी का नाम बाड़ाहाट था। भगवान शिव को जो हम सब के आराध्य हैं, हमने उनको नमस्कार किया साथ में जल व प्रसाद भी चढ़ाया और बाहर आ गए। बाहर अन्य काफी भक्त मौजूद थे फिर हम सब ने मिलकर भगवान शिव की आरती भी की। सचमुच यह पल मुझे हमेशा याद रहेंगे।
काशी विश्वनाथ मंदिर के बाहर 
मंदिर के बाहर दीवारों को कुछ ऐसे सजाया गया है 
मैं सचिन त्यागी अपने परिवार के साथ विश्वनाथ मंदिर पर
मंदिर का पिछला हिस्सा 
अन्दर जो जल चढाया जाता है वो इधर से बाहर गिरता है 


शक्ति मंदिर
विश्वनाथ मंदिर के सामने ही एक मंदिर बना जिसे शक्ति मंदिर कहा जाता है। यह मंदिर माता पार्वती को समर्पित है। इस मंदिर का मुख्य आकर्षण यहां पर स्थापित एक बहुत बड़ा त्रिशूल है। इस त्रिशूल की ऊंचाई लगभग 26 फ़ीट है और यह काफी चौड़ा भी है। इस विशाल त्रिशूल को देखते ही ऐसा लगता है जैसे यह साक्षात शिव जी का त्रिशूल हो, लेकिन वहां पर बैठे पंडित जी ने बताया कि यह बहुत प्राचीन है, माना जाता है कि यह 1500 वर्ष से भी पुराना है। उन्होंने बताया कि यह बहुत भारी है जिसे एक व्यक्ति का उठा पाना भी सम्भव नही है जबकि यह एक उंगली मात्र लगने से ही कंपन(हल्का सा हिलने) करने लगता है। इस त्रिशूल को माता पार्वती (मां दुर्गा) के त्रिशूल रूप में पूजा जाता है। मंदिर परिसर में और अन्य मंदिर भी बने हैं इनको भी देखा गया और हम मंदिर परिसर से बाहर आ गए।
शक्ति मंदिर 
शक्ति मंदिर के अन्दर का दर्शय 
वह प्राचीन व विशाल त्रिशूल 
शक्ति मंदिर व पीछे वाला विश्वनाथ मंदिर ,उत्तरकाशी

उत्तरकाशी में देखने को और बहुत से मंदिर है। उत्तरकाशी में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (NIM) भी जहां पर पर्वतारोहण का कोर्स किया जाता है। व कई प्रमुख ट्रेक भी आस पास है जैसे दायरा बुग्याल, डोडिताल ट्रेक, नचिकेता ताल ट्रेक आदि। उत्तरकाशी उत्तराखंड का एक जिला है जिसमे यमनोत्री गंगोत्री धाम भी स्तिथ है।

अब हम वापिस चलने को तैयार थे। समय देखा तो सुबह के 9:30 हो रहे थे। आज मैंने ऋषिकेश रुकना तय किया जो उत्तरकाशी से लगभग 175 km की दूरी पर है और लगभग सात घंटे का सफर है। मैंने गूगल से चम्बा तक का रास्ता जाना तो गूगल मैप ने मुझे दो रास्ते सुझाये। पहला उत्तरकाशी से धरासू बैंड होते हुए चिन्यालीसौड़ और फिर चम्बा जो लगभग 106 किलोमीटर का था और दूसरा उत्तरकाशी से चौरंगिखाल होते है नई टिहरी। यह रास्ता थोड़ा बड़ा था यह लगभग 144 km का था। चौरंगिखाल से तीन किलोमीटर का एक छोटा ट्रेक करके नचिकेता ताल तक पहुँचा जाता है। फिलहाल मुझे यह ट्रेक तो करना नही था इसलिए चिन्यालीसौड़ वाला रास्ते से जाना तय किया। लगभग 10 बजे हम उत्तरकाशी शहर से बाहर आ गए। एक दुकान देखकर चाय और ब्रेड का नाश्ता भी कर लिया। धरासू बैंड पहुँचे यही से एक रास्ता यमनोत्री के लिए अलग हो जाता है। हमे चिन्यालीसौड़ की तरफ जाना था इसलिए हम धरासू बैंड से बाँये तरफ हो गए। रास्ते मे हमे कई जगह जंगल जलते हुए मिले एक जगह तो आग रास्ते के इतने करीब भी आ गया थी कि हमारे चहरों ने भी उसकी तपन को महसूस किया। आग की वजह से हर तरफ धुंआ ही धुंआ फैला हुआ था। पहाड़ो पर गाड़ी चलाने का जो एक आनंद होता है वह आज मुझे बिल्कुल भी नही आ रहा था। रास्ते मे एक होटल पर रुके, खाने का मन नही हुआ इसलिए निम्बू पानी और ताज़े खीरे खाये गए। यहाँ पर एक व्यक्ति से पूछा कि हर जगह इतनी आग क्यो लगी है और कोई इसको बुझाता भी क्यो नही तो उस व्यक्ति ने बताया कि कुछ आग तो गांव वाले लगा देते है जिससे बारिश के बाद नई घास बढ़िया आती है जिससे पशुओं के लिए चारे की कमी नही होती है। क्योंकि चीड़ की पत्तियों घास को उगने ही नही देती है। और कुछ जगह आग चीड़ के पिरुल की वजह से भी लग जाती है। पिरुल जल्दी तप जाता है और आग पकड़ लेता है जिसकी वजह से भी आग लग जाती है। अब हम आगे चल पड़े और लगभग दोपहर के तीन बजे चम्बा पहुँच गए। चम्बा से नई टिहरी, टिहरी झील व कानाताल जगह बेहद नजदीक है। चम्बा पहुँचे ही थे कि मेरा बेटा देवांग कुछ अस्वस्थ नज़र आया इसलिए आज की रात हम ने चम्बा में ही रुकने का निर्णय किया। 
एक जगह दूर आग जलती दिख रही थी 
हमने देखा की अब वह आग काफी विकराल रूप ले चुकी थी 
आग सड़क तक आ गयी थी और इसकी तपन को हम गाड़ी में ही महसूस कर रहे थे 
जंगल के जंगल जल रहे थे जिसकी वजह से हर जगह धुआं फैला हुआ था 
रात को चंबा में ही रुके 

और अगले दिन 01 जून को चम्बा से ऋषिकेश की तरफ निकल पड़े जो की चंबा से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर है, चंबा से ऋषिकेश के बीच ही माँ कुंजापुरी देवी का मंदिर भी आता है जो एक शक्ति पीठ है हम कुंजापुरी पहले भी गए हुए है इसलिए सीधा ऋषिकेश पहुंचे और  कुछ समय ऋषिकेश में बिताने के उपरांत हरिद्वार की तरफ चल दिए। आज की रात हम हरिद्वार ही रुके फिर हम संध्या आरती देखने के लिए हर की पौड़ी भी गए। गंगा जी की आरती देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। बहते हुए जल में जलते दीप और उसे जाते हुए देखना एक अलग ही तरह का आनंद प्रदान करता है। आरती के बाद खाना खाने के बाद हम सीधा होटल पहुंचे। जंहाँ से अगले दिन वापिस अपने घर दिल्ली लौट आयेे।
ऋषिकेश 
परमार्थ निकेतन आश्रम,ऋषिकेश 
ऋषिकेश में गंगा स्नान 
हर की पौड़ी हरिद्वार 
हर की पौड़ी पर संध्या आरती की तय्यारी हो रही है 
माँ गंगा की संध्या आरती होती हुई हर की पौड़ी हरिद्वार में 


यात्रा समाप्त
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